माल-ओ-मता-ए-दश्त सराबों को दे दिया
जो कुछ ज़र-ए-ख़याल था ख़्वाबों को दे दिया
रखने का जो गुहर था उसे दिल में रख लिया
बिकने का था जो माल किताबों को दे दिया
सब्ज़ों को ख़ुश-लिबास बना कर ज़मीन ने
कुछ रश्क का जवाज़ गुलाबों को दे दिया
अपने लहू की बूँद बना कर दम-ए-नशात
इक सोज़-ए-ला-ज़वाल शराबों को दे दिया
आए न जब गिरफ़्त में सैफ़-ओ-क़लम 'नईम'
अपना तमाम कर्ब रबाबों को दे दिया
ग़ज़ल
माल-ओ-मता-ए-दश्त सराबों को दे दिया
हसन नईम