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मआल-ए-सोज़-ए-तलब था दिल-ए-तपाँ मालूम | शाही शायरी
maal-e-soz-e-talab tha dil-e-tapan malum

ग़ज़ल

मआल-ए-सोज़-ए-तलब था दिल-ए-तपाँ मालूम

अहसन रिज़वी दानापुरी

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मआल-ए-सोज़-ए-तलब था दिल-ए-तपाँ मालूम
सितम की आग भी होने लगी धुआँ मालूम

शिकस्ता-पा भी पहुँच ही गए सर-ए-मंज़िल
न रास्ते की ख़बर थी न कारवाँ मालूम

शमीम-ए-दोस्त बढ़ाती है ज़िंदगी लेकिन
हमें हक़ीक़त-ए-हस्ती अभी कहाँ मालूम

न जाने फ़ित्ना-गरों ने लगाई थी कब आग
हमें तो आँच हुई उस की ना-गहाँ मालूम

गुज़र चुके हद-ए-तूफ़ाँ से मोड़ लो कश्ती
यहाँ से होते हैं साहिल के कुछ निशाँ मालूम

बिछड़ के आप से क्या क्या गुज़र गई दिल पर
कहूँ किसी से तो हो उस को दास्ताँ मालूम

उभर के कहते हैं फूलों से ख़ार-ए-ग़म 'अहसन'
कि हम न हों तो न हो रंग-ए-गुलसिताँ मालूम