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मआल-ए-गर्दिश-ए-लैल-ओ-नहार कुछ भी नहीं | शाही शायरी
maal-e-gardish-e-lail-o-nahaar kuchh bhi nahin

ग़ज़ल

मआल-ए-गर्दिश-ए-लैल-ओ-नहार कुछ भी नहीं

अख़्तर सईद ख़ान

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मआल-ए-गर्दिश-ए-लैल-ओ-नहार कुछ भी नहीं
हज़ार नक़्श हैं और आश्कार कुछ भी नहीं

हर एक मोड़ पे दुनिया को हम ने देख लिया
सिवाए कश्मकश-ए-रोज़गार कुछ भी नहीं

निशान-ए-राह मिले भी यहाँ तो कैसे मिले
सिवाए ख़ाक-ए-सर-ए-रहगुज़ार कुछ भी नहीं

बहुत क़रीब रही है ये ज़िंदगी हम से
बहुत अज़ीज़ सही ए'तिबार कुछ भी नहीं

न बन पड़ा कि गरेबाँ के चाक सी लेते
शुऊ'र हो कि जुनूँ इख़्तियार कुछ भी नहीं

खिले जो फूल वो दस्त-ए-ख़िज़ाँ ने छीन लिए
नसीब-ए-दामन-ए-फ़स्ल-ए-बहार कुछ भी नहीं

ज़माना इश्क़ के मारों को मात क्या देगा
दिलों के खेल में ये जीत हार कुछ भी नहीं

ये मेरा शहर है मैं कैसे मान लूँ 'अख़्तर'
न रस्म-ओ-राह न वो कू-ए-यार कुछ भी नहीं