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मआल-ए-दिल के लिए आज यूँ ख़ुदी तरसे | शाही शायरी
maal-e-dil ke liye aaj yun KHudi tarse

ग़ज़ल

मआल-ए-दिल के लिए आज यूँ ख़ुदी तरसे

हामिद मुख़्तार हामिद

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मआल-ए-दिल के लिए आज यूँ ख़ुदी तरसे
कि ज़िंदगी के लिए जैसे ज़िंदगी तरसे

ख़िरद-ब-दोश है तहज़ीब-ए-नौ मगर फिर भी
जुनूँ-ब-दामाँ तमद्दुन को आगही तरसे

जो अपना ख़ून-ए-जिगर पी के मस्त हो जाएँ
अब ऐसे ज़र्फ़-परस्तों को तिश्नगी तरसे

है अब भी सिलसिला-ए-दोस्ती जहाँ में मगर
वफ़ा-शनास मोहब्बत को दोस्ती तरसे

मक़ाम-ए-ज़ब्त ग़म-ए-इश्क़ में वो पैदा कर
कि तू ख़ुशी को न तरसे तुझे ख़ुशी तरसे

रह-ए-वफ़ा में मुझे काश ऐसी मौत मिले
कि बाद-ए-मर्ग मुझे मेरी ज़िंदगी तरसे

जहाँ में अहल-ए-सुख़न कम नहीं मगर 'हामिद'
तख़य्युलात-ए-हक़ीक़त को शाइरी तरसे