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लुत्फ़ हो हश्र में कुछ बात बनाए न बने | शाही शायरी
lutf ho hashr mein kuchh baat banae na bane

ग़ज़ल

लुत्फ़ हो हश्र में कुछ बात बनाए न बने

दत्तात्रिया कैफ़ी

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लुत्फ़ हो हश्र में कुछ बात बनाए न बने
आँख भी शोख़ सितम-गर से चुराए न बने

मुझ को उठवा तो दिया उस ने भरी महफ़िल से
कौन था ये कोई पूछे तो बताए न बने

बात सारी ये है वो ज़िद पे अड़े बैठे हैं
याद की भूल हो तो लाख जताए न बने

तुम से अब क्या कहें वो चीज़ है दाग़-ए-ग़म-ए-इश्क़
कि छुपाए न छुपे और दिखाए न बने

सीधी बातों पे है मतलूब सनद और सुबूत
हैं वो कज-बहस ज़बाँ उन से मिलाए न बने

फ़तह का राज़ है साबित-क़दमी और हिम्मत
काम भी है कोई ऐसा कि बनाए न बने

बात वो कह गए आए भी तो किस तरह यक़ीं
और सेहर इस में कुछ ऐसा है भुलाए न बने

बे-कसी की है मुसीबत में शिकायत बे-सूद
कब पड़ा वक़्त कि अपने भी पराए न बने

ग़म जो प्यारे से मिले क्यूँ न हो वो भी प्यारा
भूलना भी उसे चाहें तो भुलाए न बने

है नज़र में वो समाँ नक़्श है जिस का दिल पर
दर्द वो नाम है लब तक जिसे लाए न बने

बे-ख़ुदी का है जहाँ बे-असर नाज़ ओ नियाज़
सरकशी भी न चले सर भी झुकाए न बने

आह-ए-सर्द और भी भड़काती है शोला दिल में
ये दिया वो है जो फूँकों से बुझाए न बने

सर्द आज़ाद है दिल रश्क ओ नुमाइश है अबस
ख़ार खाए न बने गुल भी खिलाए न बने

ऐन यक-रंगी है नैरंग-ए-तमाशा हर चंद
ये वो उर्यानी का पर्दा है उठाए न बने

बे-ख़ुदी में भी तो 'कैफ़ी' की ये ख़ुद्दारी है
हाल-ए-दिल पूछ भी लें वो तो सुनाए न बने