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लुत्फ़-ए-वफ़ा नहीं कि वो बेदाद-गर नहीं | शाही शायरी
lutf-e-wafa nahin ki wo bedad-gar nahin

ग़ज़ल

लुत्फ़-ए-वफ़ा नहीं कि वो बेदाद-गर नहीं

मोहम्मद दीन तासीर

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लुत्फ़-ए-वफ़ा नहीं कि वो बेदाद-गर नहीं
ख़ामोश हूँ कि मेरी फ़ुग़ाँ बे-असर नहीं

तेरे बग़ैर तल्ख़ी-ए-काम-ओ-दहन हराम
दर्द-ए-जिगर है लज़्ज़त-ए-दर्द-ए-जिगर नहीं

सज्दों से ना-मुराद है जल्वों से ना-उमीद
वो रहगुज़र कि अब जो तिरी रहगुज़र नहीं

तुम क्या गए कि सारा ज़माना चला गया
वो रात-दिन नहीं हैं वो शाम-ओ-सहर नहीं

हर हर रविश मुआ'मला-ए-हुस्न-ओ-आशिक़ी
हर हर क़दम फ़रोग़-ए-जमाल-ए-नज़र नहीं

बेबाक चाल चाल से बेबाक-तर नज़र
अब हुस्न तो बहुत है मगर फ़ित्ना-गर नहीं

ज़ख़्मों से चूर क़ाफ़िले पुर-ख़ार रास्ते
इस में तिरा क़ुसूर तो ऐ राहबर नहीं

दुनिया-ए-चश्म-ओ-गोश तो बरबाद हो गई
अब कुछ बग़ैर मा'रका-ए-ख़ैर-ओ-शर नहीं