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लुत्फ़ चाहो इक बुत-ए-नौ-ख़ेज़ को राज़ी करो | शाही शायरी
lutf chaho ek but-e-nau-KHez ko raazi karo

ग़ज़ल

लुत्फ़ चाहो इक बुत-ए-नौ-ख़ेज़ को राज़ी करो

अकबर इलाहाबादी

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लुत्फ़ चाहो इक बुत-ए-नौ-ख़ेज़ को राज़ी करो
नौकरी चाहो किसी अंग्रेज़ को राज़ी करो

लीडरी चाहो तो लफ़्ज़-ए-क़ौम है मेहमाँ-नवाज़
गप-नवीसों को और अहल-ए-मेज़ को राज़ी करो

ताअत-ओ-अम्न-ओ-सुकूँ का दिल को लेकिन हो जो शौक़
सब्र पर तब-ए-हवस-अंगेज़ को राज़ी करो

ज़क-ज़क-ओ-बक़-बक़ में दुनिया के न हो 'अकबर' शरीक
चुप ही रहने पर ज़बान-ए-तेज़ को राज़ी करो