लुटाओ जान तो बनती है बात किस ने कहा
ये बज़्म-ए-इश्क़ में राज़-ए-हयात किस ने कहा
रह-ए-तलब में सुनाता कोई तराना-ए-नौ
यहाँ फ़साना-ए-ज़ात-ओ-सिफ़ात किस ने कहा
अभी सवाबित-ओ-सय्यार में है फ़स्ल बहुत
सिमट चुकी है बहुत काएनात किस ने कहा
हर इक चोट पे खुलती है आँख इंसाँ की
हैं ख़िज़्र-ए-राह-ए-तलब हादसात किस ने कहा
हम आसमाँ को ज़मीं पर उतार लाए मगर
अभी नहीं है शुऊर-ए-हयात किस ने कहा
हम अपनी धुन में हैं मसरूफ़ किस तरफ़ देखें
हमें नहीं है ग़म-ए-इल्तिफ़ात किस ने कहा
हमें सुकून मयस्सर नहीं मगर 'अख़्तर'
हमारे दौर को दौर-ए-नजात किस ने कहा
ग़ज़ल
लुटाओ जान तो बनती है बात किस ने कहा
अख़्तर अंसारी अकबराबादी