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लुटा रहा हूँ मैं लाल-ओ-गुहर अँधेरे में | शाही शायरी
luTa raha hun main lal-o-gohar andhere mein

ग़ज़ल

लुटा रहा हूँ मैं लाल-ओ-गुहर अँधेरे में

अफ़ज़ल इलाहाबादी

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लुटा रहा हूँ मैं लाल-ओ-गुहर अँधेरे में
तलाश करती है किस को नज़र अँधेरे में

वो जिस की राह में मैं ने दिए जलाए थे
गया वो शख़्स मुझे छोड़ कर अँधेरे में

चराग़ कौन उठा ले गया मिरे घर से
सिसक रहे हैं मिरे बाम-ओ-दर अँधेरे में

था तीरगी के जनाज़े पे एक हश्र बपा
जो उस के आने से फैली ख़बर अँधेरे में

कोई हथेली पे फिरता है आफ़्ताब लिए
भटक रहा है कोई दर-ब-दर अँधेरे में

में कोह-ए-नूर हूँ नादाँ तुझे ख़बर भी नहीं
मुझे छुपाने की कोशिश न कर अँधेरे में

मुसाफिरों को वो राहें दिखाएगा 'अफ़ज़ल'
चराग़ रख दो सर-ए-रहगुज़र अँधेरे में