लोगों ने आकाश से ऊँचा जा कर तमग़े पाए
हम ने अपना अंतर खोजा दीवाने कहलाए
कैसे सपने किस की आशा कब से हैं मेहमान बने
तन्हाई के सूने आँगन में यादों के साए
आँखों में जो आज किसी के बदली बन के झूम उठी है
क्या अच्छा हो ऐसी बरसे सब जल-थल हो जाए
धूल बने ये बात अलग है वर्ना इक दिन होते थे
चंदा के हम संघी-साथी तारों के हम-साए
आने वाले इक पल को मैं कैसे बतला पाऊँगा
आशा कब से दूर खड़ी है बाहोँ को फैलाए
चाँद और सूरज दोनों आशिक़ धरती किस का मान रखे
इक चाँदी के गहने फेंके इक सोना बिखराए
कहने की तो बात नहीं है लेकिन कहनी पड़ती है
दिल की नगरी में मत जाना जो जाए पछताए
'माजिद' हम ने इस जुग से बस दो ही चीज़ें माँगी हैं
ऊषा सा इक सुंदर चेहरा दो नैनाँ शरमाए
ग़ज़ल
लोगों ने आकाश से ऊँचा जा कर तमग़े पाए
हुसैन माजिद