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लोग तो इक मंज़र हैं तख़्त-नशीनों की ख़ातिर | शाही शायरी
log to ek manzar hain taKHt-nashinon ki KHatir

ग़ज़ल

लोग तो इक मंज़र हैं तख़्त-नशीनों की ख़ातिर

हुमैरा रहमान

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लोग तो इक मंज़र हैं तख़्त-नशीनों की ख़ातिर
फ़र्श बिछाया जाता है क़ालीनों की ख़ातिर

कितनी बे-तरतीबी फैली क्या कुछ टूट गया
सजे-सजाए घर थे उन्ही मकीनों की ख़ातिर

ठहर गए हैं ऐन सफ़र में बिन सोचे-समझे
हम-सफ़री के कुछ बे-नाम क़रीनों की ख़ातिर

जल बुझते हैं लोग किसी को फ़ैज़ पहुँचने पर
गिर जाते हैं कुछ बे-म'अनी ज़ीनों की ख़ातिर

हम और तुम जो बदल गए तो इतनी हैरत क्या
अक्स बदलते रहते हैं आईनों की ख़ातिर

ऊँचे दाम लगे हैं हुमैरा कोरे जज़्बों के
सौदा बुरा नहीं है चंद मशीनों की ख़ातिर