लोग सुब्ह ओ शाम की नैरंगियाँ देखा किए
और हम चुप-चाप माज़ी के निशाँ देखा किए
अक़्ल तो करती रही दामान-ए-हस्ती चाक चाक
हम मगर दस्त-ए-जुनूँ में धज्जियाँ देखा किए
ख़ंजरों की थी नुमाइश हर गली हर मोड़ पर
और हम कमरे में तस्वीर-ए-बुताँ देखा किए
हम तन-आसानी के ख़ूगर ढूँडते मंज़िल कहाँ
दूर ही से गर्द-ए-राह-ए-कारवाँ देखा किए
हम को इस की क्या ख़बर गुलशन का गुलशन जल गया
हम तो अपना सिर्फ़ अपना आशियाँ देखा किए
मौसम-ए-परवाज़ ने 'नजमी' पुकारा था मगर
पर समेटे हम क़फ़स की तीलियाँ देखा किए
ग़ज़ल
लोग सुब्ह ओ शाम की नैरंगियाँ देखा किए
हसन नज्मी सिकन्दरपुरी