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लोग कहते हैं कि क़ातिल को मसीहा कहिए | शाही शायरी
log kahte hain ki qatil ko masiha kahiye

ग़ज़ल

लोग कहते हैं कि क़ातिल को मसीहा कहिए

फ़ैज़ुल हसन

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लोग कहते हैं कि क़ातिल को मसीहा कहिए
कैसे मुमकिन है अंधेरों को उजाला कहिए

चेहरे पढ़ना तो सभी सीख गए हैं लेकिन
कैसी तहज़ीब है अपनों को पराया कहिए

जाने पहचाने हुए चेहरे नज़र आते हैं
वक़्त क़ातिल है यहाँ किस को मसीहा कहिए

आप जिस पेड़ के साए में खड़े हैं इस को
सेहन-ए-गुलशन नहीं जलता हुआ सहरा कहिए

सब के चेहरों पे हैं अख़्लाक़-ओ-मुरव्वत के नक़ाब
किस को अपना यहाँ और किस को पराया कहिए

शब के माथे पे कोई साया नुमूदार हुआ
उस को अब प्यार के आँगन का सवेरा कहिए

ज़हर-ए-तन्हाई-ए-ग़म पी के मोहब्बत में 'ख़याल'
किस तरह मौत को जीने का सहारा कहिए