लोग इस ढब से क़सीदे में उतर बाँधते हैं
साहब-ए-सद्र के ऐबों को हुनर बाँधते हैं
हम तिरे शहर का जब अज़्म-ए-सफ़र बाँधते हैं
आदतन काँधों पे अपने कई सर बाँधते हैं
सूखी शाख़ों पे नए बर्ग-ओ-समर बाँधते हैं
क़ाफ़िया जब भी नया अहल-ए-हुनर बाँधते हैं
इन मुंडेरों के चराग़ों की अजब क़िस्मत है
जिस में अहबाब हवाओं का गुज़र बाँधते हैं
मैं इसे ले के खड़ा हूँ तो नहीं कोई हरीफ़
किस के होने का फ़ुसूँ शो'बदा-गर बाँधते हैं
वो जो वाक़िफ़ नहीं तहज़ीब-ए-ज़बाँ-दानी से
अपनी दस्तार में अब वो भी गुहर बाँधते हैं
इक ग़ज़ल ऐसी कि काग़ज़ को भिगो देती है
इस में हम क़ाफ़िया-ए-दीदा-ए-तर बाँधते हैं
इन से हुशियार नई तर्ज़ के जादूगर हैं
किस सफ़ाई से ये लोगों की नज़र बाँधते हैं
हम हैं मा'ज़ूर-ए-नज़र, पुल तिरी तारीफ़ों के
आइना-ख़ाने के अर्बाब मगर बाँधते हैं
ग़ज़ल
लोग इस ढब से क़सीदे में उतर बाँधते हैं
ख़्वाजा रब्बानी