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लिखना है सर-गुज़श्त क़लम नाज़ से उठा | शाही शायरी
likhna hai sar-guzasht qalam naz se uTha

ग़ज़ल

लिखना है सर-गुज़श्त क़लम नाज़ से उठा

जमील अज़ीमाबादी

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लिखना है सर-गुज़श्त क़लम नाज़ से उठा
हर नुक़्ता-ए-हयात को आग़ाज़ से उठा

हर मा-सिवा के ख़ौफ़ को जिस ने मिटा दिया
ना'रा वो ला-तज़र का मेरे साज़ से उठा

जो भी भरम था चाँद-सितारों का खुल गया
पर्दा कुछ ऐसा जुरअत-ए-पर्वाज़ से उठा

वो शोर जिस से अज़्मत-ए-शाही लरज़ गई
तबरेज़-ओ-क़ुम से मशहद-ओ-शीराज़ से उठा

अफ़्सुर्दा अंजुमन है फ़सुर्दा हैं अहल-ए-दिल
ये कौन आज जल्वा-गह-ए-नाज़ से उठा

ये नौनिहाल-ए-बाग़-ए-तमन्ना के फूल हैं
आग़ोश-ए-दिल में इन को ज़रा नाज़ से उठा

मर जाऊँगा तो लोग कहेंगे यही 'जमील'
इक मर्द-ए-हक़ की लाश है एज़ाज़ से उठा