लिखना है सर-गुज़श्त क़लम नाज़ से उठा
हर नुक़्ता-ए-हयात को आग़ाज़ से उठा
हर मा-सिवा के ख़ौफ़ को जिस ने मिटा दिया
ना'रा वो ला-तज़र का मेरे साज़ से उठा
जो भी भरम था चाँद-सितारों का खुल गया
पर्दा कुछ ऐसा जुरअत-ए-पर्वाज़ से उठा
वो शोर जिस से अज़्मत-ए-शाही लरज़ गई
तबरेज़-ओ-क़ुम से मशहद-ओ-शीराज़ से उठा
अफ़्सुर्दा अंजुमन है फ़सुर्दा हैं अहल-ए-दिल
ये कौन आज जल्वा-गह-ए-नाज़ से उठा
ये नौनिहाल-ए-बाग़-ए-तमन्ना के फूल हैं
आग़ोश-ए-दिल में इन को ज़रा नाज़ से उठा
मर जाऊँगा तो लोग कहेंगे यही 'जमील'
इक मर्द-ए-हक़ की लाश है एज़ाज़ से उठा

ग़ज़ल
लिखना है सर-गुज़श्त क़लम नाज़ से उठा
जमील अज़ीमाबादी