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लिबास-ए-यार को मैं पारा-पारा क्या करता | शाही शायरी
libas-e-yar ko main para-para kya karta

ग़ज़ल

लिबास-ए-यार को मैं पारा-पारा क्या करता

हैदर अली आतिश

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लिबास-ए-यार को मैं पारा-पारा क्या करता
क़बा-ए-गुल से उसे इस्तिआरा क्या करता

बहार-ए-गुल में हैं दरिया के जोश की लहरें
भला मैं कश्ती-ए-मय से किनारा क्या करता

नक़ाब उलट के जो मुँह आशिक़ों को दिखलाते
तुम्हीं कहो कि तुम्हारा नज़ारा क्या करता

सुना जो हाल-ए-दिल-ए-ज़ार यार ने तो कहा
तबीब मरते हुए काहे चारा किया करता

हिलाल-ए-ईद का हर-चंद हो जहाँ मुश्ताक़
तुम्हारी अब्रूओं का सा इशारा क्या करता

हक़ीक़त-ए-दहन-ए-यार खोलता क्यूँ-कर
नहुफ़्ता राज़ को मैं आश्कारा क्या करता

क़दम को पीछे रह-ए-ख़ौफ़नाक-ए-इश्क़ में रख
ये पहले देख ले दिल है इशारा क्या करता

ख़ुम-ए-शराब से मुझ मस्त ने न मुँह फेरा
कनार-ए-आब से प्यासा किनारा क्या करता

बहार थी जो वो गुल-चेहरा यार भी होता
अकेले जा के चमन का नज़ारा क्या करता

गुदाज़ मोम से हर उस्तुख़्वाँ को पाता हूँ
फिर और सोज़िश-ए-दिल का हरारा क्या करता

बड़ा ही ख़्वार इलाक़ा है गुलशन-ए-उल्फ़त
मिरी तरह कोई इस में इजारा क्या करता

शराब-ए-ख़ुल्द की ख़ातिर दहन है रखता साफ़
वज़ू में वर्ना ये ज़ाहिद ग़रारा क्या करता

शिकस्ता-दिल न हो उस बुत के नाज़ से क्यूँ-कर
सुलूक शीशा से है संग-ए-ख़ारा क्या करता

बहार-ए-गुल में पियाला लगा लिया मुँह से
शराब पीने को मैं इस्तिख़ारा क्या करता

फ़क़ीर को नहीं दरकार शान अमीरों की
सर-ए-बरहना सर-ए-गोश्वारा क्या करता

बहार-ए-गुल में था जामे से बाहर ऐ 'आतिश'
न करता मैं जो गरेबाँ को पारा क्या करता