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लिबास-ए-गुल में वो ख़ुशबू के ध्यान से निकला | शाही शायरी
libas-e-gul mein wo KHushbu ke dhyan se nikla

ग़ज़ल

लिबास-ए-गुल में वो ख़ुशबू के ध्यान से निकला

असलम बदर

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लिबास-ए-गुल में वो ख़ुशबू के ध्यान से निकला
मिरा यक़ीन भी वहम-ओ-गुमान से निकला

हमारे साथ ही अब आँधियाँ भी चलती हैं
ये तर्ज़-ए-हम-सफ़री बादबान से निकला

कुछ इस तरह से बंधे हैं ज़मीं की डोर से हम
कि ख़ौफ़-ए-गुम-रही ऊँची उड़ान से निकला

नक़ीब में ढूँढ रहा था फ़सील-ए-शब में मगर
मिरा ग़नीम मिरे ही मकान से निकला

अब इस के बा'द कोई रास्ता न कोई सफ़र
क़दम हिसार-ए-ज़मान-ओ-मकान से निकला

अजीब कश्मकश-ए-जब्र-ओ-इख़्तियार रही
ग़म-ए-हयात इसी दरमियान से निकला

नदी से प्यास मिली है इसी घराने को
कि जिस के वास्ते पानी चटान से निकला