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ले के दिल मेहर से फिर रस्म-ए-जफ़ा-कारी क्या | शाही शायरी
le ke dil mehr se phir rasm-e-jafa-kari kya

ग़ज़ल

ले के दिल मेहर से फिर रस्म-ए-जफ़ा-कारी क्या

नज़ीर अकबराबादी

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ले के दिल मेहर से फिर रस्म-ए-जफ़ा-कारी क्या
तुम दिल-आराम हो करते हो दिल-आज़ारी क्या

तुम से जो हो सो करो हम नहीं होने के ख़फ़ा
कुछ हमें और से करनी है नई यारी क्या

जूँ हुबाब आए हैं मिलने को न हो चीं-ब-जबीं
हम से इक दम के लिए करते हो बे-ज़ारी क्या

तेग़-ए-अबरू की तो उल्फ़त ने किया दिल को दो-नीम
देखें अब करती है काकुल की गिरफ़्तारी क्या

फिर सिनाँ मिज़्ज़ा-ए-दिल पर वो उठाता है 'नज़ीर'
ज़ख़्म-ए-शमशीर-ए-निगह आह नहीं कारी क्या