ले के बे-शक हाथ में ख़ंजर चलो
ओढ़ कर इख़्लास की चादर चलो
कोई चिंगारी न हो इस ढेर में
सोच कर इन ख़ुश्क पत्तों पर चलो
हादसे बाहर खड़े हैं घात में
फिर पलट कर ख़ोल के अंदर चलो
तोड़ कर इस ख़ाक-दाँ की सरहदें
बादलों की ठंडी सड़कों पर चलो
फ़न की ख़िदमत रोटियाँ देती नहीं
फ़न की ख़िदमत छोड़ कर दफ़्तर चलो
मैं भी हूँ पत्थर बना दो आदमी
मुझ को भी छूते हुए 'रघुबर' चलो
ज़िंदगी बे-दाग़ भी अच्छी नहीं
तोहमतें कुछ ज़िंदगी पर धर चलो
हो गया रुख़्सत गले मिल कर कोई
तुम भी रख कर दिल पर अब पत्थर चलो
शहर की मिट्टी पुकारे है 'शबाब'
हो चुका बन-बास पूरा घर चलो
ग़ज़ल
ले के बे-शक हाथ में ख़ंजर चलो
शबाब ललित