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लज़्ज़त-ए-दर्द-ए-जिगर याद आई | शाही शायरी
lazzat-e-dard-e-jigar yaad aai

ग़ज़ल

लज़्ज़त-ए-दर्द-ए-जिगर याद आई

क़मर मुरादाबादी

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लज़्ज़त-ए-दर्द-ए-जिगर याद आई
फिर तिरी पहली नज़र याद आई

दर्द ने जब कोई करवट बदली
ज़िंदगी बार-ए-दिगर याद आई

पड़ गई जब तिरे दामन पे नज़र
अज़्मत-ए-दीदा-ए-तर याद आई

अपना खोया हुआ दिल याद आया
उन की मख़्मूर नज़र याद आई

दैर ओ काबा से जो हो कर गुज़रे
दोस्त की राहगुज़र याद आई

देख कर उस रुख़-ए-ज़ेबा पे नक़ाब
अपनी गुस्ताख़ नज़र याद आई

जब भी तामीर-ए-नशेमन की 'क़मर'
यूरिश-ए-बर्क़-ओ-शरर याद आई