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लौह-ए-महफ़ूज़ तिरा ज़ेर-ओ-ज़बर कैसा है | शाही शायरी
lauh-e-mahfuz tera zer-o-zabar kaisa hai

ग़ज़ल

लौह-ए-महफ़ूज़ तिरा ज़ेर-ओ-ज़बर कैसा है

क़ौस सिद्दीक़ी

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लौह-ए-महफ़ूज़ तिरा ज़ेर-ओ-ज़बर कैसा है
ये ख़त-ए-बुल-अजबी पेश-ए-नज़र कैसा है

तू कहीं और बसा है तो ये घर कैसा है
ला-मकाँ वाले ये मेहराब ये दर कैसा है

नक़्श उभरा भी नहीं था कि मिटाने बैठे
मेरे पैकर से जहाँ वालों को डर कैसा है

न कोई शाख़ न पत्ते न कोई गुल न शजर
बीच आँगन में खड़ा है जो शजर कैसा है

मैं इसी वास्ते डूबा कि समझ पाओ तुम
ज़ेर-ए-साहिल जो भँवर है वो भँवर कैसा है