लम्हा लम्हा वुसअत-ए-कौन-ओ-मकाँ की सैर की
आ गया सो ख़ूब मैं ने ख़ाक-दाँ की सैर की
एक लम्हे के लिए तन्हा नहीं होने दिया
ख़ुद को अपने साथ रक्खा जिस जहाँ की सैर की
तुझ से मिल कर आज अंदाज़ा हुआ है ज़िंदगी
पहले जितनी की वो गोया राएगाँ की सैर की
नींद से जागे हैं कोई ख़्वाब भी देखा है क्या
देखा है तो बोलिए शब-भर कहाँ की सैर की
थक गया था मैं बदन में रहते रहते एक दिन
भाग निकला और जा कर आसमाँ की सैर की
याद है इक एक गोशा नक़्श है दिल पर हनूज़
सैर तो वो है जो शहर-ए-दिल-बराँ की सैर की
फूल हैरत से हमें देखा किए वक़्त-ए-विसाल
गुल-बदन के साथ 'आज़र' गुलिस्ताँ की सैर की
ग़ज़ल
लम्हा लम्हा वुसअत-ए-कौन-ओ-मकाँ की सैर की
दिलावर अली आज़र