लम्हा लम्हा शुमार करता हूँ
आप का इंतिज़ार करता हूँ
ख़ार-ज़ार-ए-हयात में रह कर
मैं बहारों से प्यार करता हूँ
ज़र्द चेहरों उदास आँखों पर
अपनी ख़ुशियाँ निसार करता हूँ
मुझ सा नादान कोई क्या होगा
आप पर ए'तिबार करता हूँ
देख कर नूर नूर चेहरों को
मिदहत-ए-किर्दगार करता हूँ
कोई समझे न दिल की बात अगर
ख़ामुशी इख़्तियार करता हूँ
मैं मोहब्बत के नाम पर 'रिफ़अत'
ग़म-नसीबों से प्यार करता हूँ
ग़ज़ल
लम्हा लम्हा शुमार करता हूँ
रिफ़अत सुलतान