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लम्हा लम्हा शोर सा बरपा हुआ अच्छा लगा | शाही शायरी
lamha lamha shor sa barpa hua achchha laga

ग़ज़ल

लम्हा लम्हा शोर सा बरपा हुआ अच्छा लगा

विशाल खुल्लर

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लम्हा लम्हा शोर सा बरपा हुआ अच्छा लगा
ख़ामुशी की तान टूटी वाहिमा अच्छा लगा

आँखों आँखों में हुआ इक हादिसा अच्छा लगा
मिलने वाले क्यूँ तुझे ये फ़ासला अच्छा लगा

कौन जाने कौन बूझे दास्ताँ-दर-दास्ताँ
कुछ हवा का कुछ दिए का हौसला अच्छा लगा

जान की बाज़ी लगा दी भेद के खुलने तलक
इश्क़ वालों को हमारा फ़ल्सफ़ा अच्छा लगा

इक पहेली को मुसलसल सोचता हूँ तो मुझे
बा-वफ़ा अच्छा लगा कि बेवफ़ा अच्छा लगा

लुत्फ़-ए-मंज़िल हौसलों से आ लगा था गाम गाम
तू सफ़र में साथ था तो रास्ता अच्छा लगा

उम्र की उक्ताहटें और दर्द के पहलू तमाम
जब से 'खुल्लर' तू मिला है आइना अच्छा लगा