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लम्हा लम्हा अपनी ज़हरीली बातों से डसता था | शाही शायरी
lamha lamha apni zahrili baaton se Dasta tha

ग़ज़ल

लम्हा लम्हा अपनी ज़हरीली बातों से डसता था

अंजुम तराज़ी

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लम्हा लम्हा अपनी ज़हरीली बातों से डसता था
वो मेरा दुश्मन हो कर भी मेरे घर में बसता था

बाप मरा तो बच्चे रोटी के टुकड़े को तरस गए
एक तने से कितनी शाख़ों का जीवन वाबस्ता था

अफ़्वाहों के धुएँ ने कोशिश की है कालक मलने की
वो बिकने की शय होता तो हर क़ीमत पर सस्ता था

इक मंज़र में पेड़ थे जिन पर चंद कबूतर बैठे थे
इक बच्चे की लाश भी थी जिस के कंधे पर बस्ता था

जिस दिन शहर जला था उस दिन धूप में कितनी तेज़ी थी
वर्ना इस बस्ती पर 'अंजुम' बादल रोज़ बरसता था