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लकड़ी की दो मेज़ें हैं इक लोहे की अलमारी है | शाही शायरी
lakDi ki do mezen hain ek lohe ki almari hai

ग़ज़ल

लकड़ी की दो मेज़ें हैं इक लोहे की अलमारी है

सिदरा सहर इमरान

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लकड़ी की दो मेज़ें हैं इक लोहे की अलमारी है
इक शाइर के कमरे जैसी हम ने उम्र गुज़ारी है

एक सलाख़ों वाली खिड़की झाँक रही है आँगन में
दीवारों पर ऊपर नीचे ख़्वाबों की गुल-कारी है

मंज़र मंज़र भीग रहा है शहर की ख़ाली सड़कों पर
पक्की नहर पे गाँव के घोड़े की टॉप सवारी है

प्यास बुझाने आते हैं दुख दर्द परिंदे रात गए
ख़्वाब का चश्मा फूटा था आँखों में अब तक जारी है

संदूक़ पुरानी यादों का ताला तोड़ के देखा तो
इक रेशम की शाल मिली है नीले रंग की सारी है

वक़्त मिले तो गुल-दस्ते का हाथ पकड़ कर आ जाना
वर्ना कहना काम बहुत है आने में दुश्वारी है