लजयाई से नाज़ुक है ऐ जान बदन तेरा
अब छू नहीं सकते हम फूला ये चमन तेरा
आँखें तिरी नर्गिस हैं रुख़्सार तिरे गुल हैं
चटवाता है होंठों को ये सेब-ए-ज़क़न तेरा
नाख़ुन तिरे सूरज हैं और चाँद हथेली है
आईना-ए-ख़ुदरौ है शफ़्फ़ाफ़ बदन तेरा
दंदाँ तिरे मोती हैं ख़ुर्शीद सा माथा है
दुर झड़ते हैं बातों में ऐसा है दहन तेरा
उस से तुझे नफ़रत है ग़ैरों से मोहब्बत है
कब भाएगा 'अख़्तर' को ऐ जान चलन तेरा

ग़ज़ल
लजयाई से नाज़ुक है ऐ जान बदन तेरा
वाजिद अली शाह अख़्तर