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लहू उछालते लम्हों का सिलसिला निकला | शाही शायरी
lahu uchhaalte lamhon ka silsila nikla

ग़ज़ल

लहू उछालते लम्हों का सिलसिला निकला

नुसरत ग्वालियारी

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लहू उछालते लम्हों का सिलसिला निकला
मुझे पहुँचना कहाँ था कहाँ मैं आ निकला

जहाँ सफ़ेद गुलाबों का ख़्वाब था रौशन
वहाँ सियाह पहाड़ों का सिलसिला निकला

बहाव तेज़ था दरिया का चंद लम्हों में
मिरी निगाह की हद से वो दूर जा निकला

तिलिस्म टूटा जब उस के हसीन लहजे का
मिरी उमीद के बर-अक्स फ़ैसला निकला

न जाने कब से मैं उस के क़रीब था लेकिन
बग़ौर देखा तो सदियों का फ़ासला निकला

जो लम्हा लम्हा जुदा कर रहा था ख़ुद से मुझे
मिरे वजूद के अंदर ही वो छुपा निकला

समझ रहे थे जिसे हम बरात का मंज़र
क़रीब जा के जो देखा तो हादसा निकला