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लहू से अपने ज़मीं लाला-ज़ार देखते थे | शाही शायरी
lahu se apne zamin lala-zar dekhte the

ग़ज़ल

लहू से अपने ज़मीं लाला-ज़ार देखते थे

हफ़ीज़ मेरठी

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लहू से अपने ज़मीं लाला-ज़ार देखते थे
बहार देखने वाले बहार देखते थे

सुरूर एक झलक का तमाम उम्र रहा
हवस-परस्त थे जो बार बार देखते थे

कभी कभी हमें दुनिया हसीन लगती थी
कभी कभी तिरी आँखों में प्यार देखते थे

चला वो दौर-ए-सितम घर में छुप के बैठ गए
जो हर सलीब को मर्दाना-वार देखते थे