लहू की बूँद मिस्ल-ए-आइना हर दर पे रक्खी थी
सनद अहल-ए-वफ़ा की लाशा-ए-बे-सर पे रक्खी थी
निगाहें वक़्त की कैसे नज़र-अंदाज़ कर देतीं
असास-ए-गुलसिताँ कतरे हुए शहपर पे रक्खी थी
अना मजरूह हो जाती क़दम पीछे अगर हटते
बिना-ए-क़ुर्ब दोहरी धार के ख़ंजर पे रक्खी थी
इधर हम सर हथेली पर लिए मक़्तल में पहुँचे थे
उधर क़ातिल ने घबरा कर हथेली सर पे रक्खी थी
ख़ुदी की रौशनी में मैं ने देखा है अक़ीदत को
ख़ुदाई वर्ना आज़र की मिरी ठोकर पे रक्खी थी
ख़ुलूस-ओ-मेहर के पानी ने ठंडा कर दिया आख़िर
जो तुम ने आग नफ़रत की दिल-ए-मुज़्तर पे रक्खी थी
लिया जाता न कैसे इम्तिहान-ए-ज़र्फ़ ऐ 'साक़ी'
नज़र हर एक बादा-ख़्वार ने साग़र पे रक्खी थी
ग़ज़ल
लहू की बूँद मिस्ल-ए-आइना हर दर पे रक्खी थी
अब्दुल हमीद साक़ी