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लहू जला के उजाले लुटा रहा है चराग़ | शाही शायरी
lahu jala ke ujale luTa raha hai charagh

ग़ज़ल

लहू जला के उजाले लुटा रहा है चराग़

मुश्ताक़ आजिज़

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लहू जला के उजाले लुटा रहा है चराग़
कि ज़िंदगी का सलीक़ा सिखा रहा है चराग़

वुफ़ूर-ए-शौक़ में लैला-ए-शब के चेहरे से
नक़ाब-ए-ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ उठा रहा है चराग़

हमारे साथ पुराने शरीक-ए-ग़म की तरह
अज़ाब-ए-हिज्र के सदमे उठा रहा है चराग़

ये रौशनी का पयम्बर है इस की बात सुनो
सदाक़तों के सहीफ़े सुना रहा है चराग़

शब-ए-सियाह का आसेब टालने के लिए
तमाम उम्र शरीक-ए-दुआ रहा है चराग़

हवा-ए-दहर चली है बड़ी रऊनत से
दयार इश्क़ में कोई जला रहा है चराग़

वो हाथ भी यद-ए-बैज़ा से कम नहीं 'आजिज़'
जो ख़ाक-ए-अर्ज़-ए-वतन से बना रहा है चराग़