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लहरों में भँवर निकलेंगे मेहवर न मिलेगा | शाही शायरी
lahron mein bhanwar niklenge mehwar na milega

ग़ज़ल

लहरों में भँवर निकलेंगे मेहवर न मिलेगा

तफ़ज़ील अहमद

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लहरों में भँवर निकलेंगे मेहवर न मिलेगा
हर मौज में पानी भी बराबर न मिलेगा

गिर जाती है रोज़ एक परत राख बदन से
जलने का समाँ फिर भी कहीं पर न मिलेगा

चश्मक भी जो रखनी है तो चौथाई ज़मीं से
शोरीदा ज़बाँ कैसे समुंदर न मिलेगा

हर सम्त दिमाग़ों के तरंगों का है शब-ख़ूँ
तकनीक की इस जंग में लश्कर न मिलेगा

रस्ते ही में जल बुझती है महताबी-ए-अंजुम
साबित को तो सय्यार का ज़ेवर न मिलेगा

करते हैं हिफ़ाज़त सभी दीवार-ए-अना की
रख़्ने के बराबर भी कहीं दर न मिलेगा

कूज़ा-गर-ए-क़ामूस कहाँ 'ज़ेब' सा 'तफ़ज़ील'
सिमटा हुआ काग़ज़ पे समुंदर न मिलेगा