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लहजे का रंग लफ़्ज़ की ख़ुश्बू भी देख ले | शाही शायरी
lahje ka rang lafz ki KHushbu bhi dekh le

ग़ज़ल

लहजे का रंग लफ़्ज़ की ख़ुश्बू भी देख ले

सैफ़ ज़ुल्फ़ी

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लहजे का रंग लफ़्ज़ की ख़ुश्बू भी देख ले
आ मुझ से कर कलाम मुझे तू भी देख ले

मैं चौदहवीं का चाँद समुंदर तिरा बदन
मेरी कशिश का बोलता जादू भी देख ले

खुलता हूँ तेरे रुख़ की सजल चाँदनी के पास
पहचान ले मुझे मिरी ख़ुश्बू भी देख ले

तू ख़ार-ज़ार और मैं अब्र-ए-बरहना-पा
मेरे सफ़र का कर्ब कभी तू भी देख ले

इक शब रिदा-ए-अब्र से बाहर निकल के आ
किस किस को है निगाह पे क़ाबू भी देख ले

मेरे लहू की गूँजती फ़रियाद पर न जा
आँखों में अपनी तैरते आँसू भी देख ले

मंज़िल पे सिर्फ़ चलते हुए चाँद ही न देख
चमके कहीं जो राह में जुगनू भी देख ले

दस्त-ए-सबा की ठेरी हुई लोरियों से बच
दश्त-ए-वफ़ा में चलती हुई लू भी देख ले

घेरे में आसमाँ ने तुझे ले लिया तो क्या
इस दाम से फ़रार का पहलू भी देख ले

सच्चाई का अलम तू उठाता तो है मगर
कटते हैं इस जिहाद में बाज़ू भी देख ले

बरहम है रोज़-ओ-शब का मिज़ाज-ए-सुकूँ-पसंद
बिखरा दिए हैं वक़्त ने गेसू भी देख ले

गुंजान पानियों पे बरसने से फ़ाएदा
ऐ अब्र तिश्नगान-ए-लब-ए-जू भी देख ले

'ज़ुल्फ़ी' जो मेरे तर्ज़-ए-अदा का असीर है
वो काश मेरे शे'र का जादू भी देख ले