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लगता है इन दिनों के है महशर-ब-कफ़ हवा | शाही शायरी
lagta hai in dinon ke hai mahshar-ba-kaf hawa

ग़ज़ल

लगता है इन दिनों के है महशर-ब-कफ़ हवा

वक़ार हिल्म सय्यद नगलवी

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लगता है इन दिनों के है महशर-ब-कफ़ हवा
हैं सर-ब-कफ़ चराग़ तो ख़ंजर-ब-कफ़ हुआ

जब से चमन में रक्खा है बुलबुल ने आशियाँ
शो'ला-ब-कफ़ है बर्क़ तो अख़गर-ब-कफ़ हवा

रुख़्सार-ए-गुल के तिल से हैं हैरान ख़ुशबुएँ
है मौसम-ए-बहार में अम्बर-ब-कफ़ हुआ

इल्म-ओ-अमल से होती है किरदार की परख
एलान कर रही है ये महज़र-ब-कफ़ हवा

फ़िरऔन और अबरहा जैसों से बारहा
हर हाल ही में निबटी है लश्कर-ब-कफ़ हवा

ए'जाज़ शेर-ए-हक़ का दिखाने के वास्ते
अज़दर ब-कफ़ हुई कभी ख़ैबर-ब-कफ़ हवा

गुलशन में मुस्तक़िल जो ठिकाना नहीं मिला
सहरा नवर्द हो गई बिस्तर-ब-कफ़ हवा

दीवान-ए-बे-नुक़त से है तेरा 'वक़ार-हिल्म'
कहती है अहल-ए-फ़न से ये गौहर-ब-कफ़ हवा