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लग गई मुझ को ये किस शख़्स की हाए हाए | शाही शायरी
lag gai mujhko ye kis shaKHs ki hae hae

ग़ज़ल

लग गई मुझ को ये किस शख़्स की हाए हाए

इशराक़ अज़ीज़ी

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लग गई मुझ को ये किस शख़्स की हाए हाए
एक लम्हा भी मुझे चैन न आए हाए

सिसकियाँ आह-ओ-फ़ुग़ाँ और मैं क्या क्या देखूँ
ज़ुल्म इतना भी कोई मुझ पे न ढाए हाए

जाम हाथों से पिलाता है वो हर शाम के बा'द
काश होंटों से भी इक रोज़ पिलाए हाए

मेरे महबूब तिरे रुख़ की ज़ियारत के लिए
चाँद की चाँदनी खिड़की से बुलाए हाए

इश्क़ के जुर्म में करवा के गिरफ़्तार मुझे
कोई पाज़ेब की झंकार सुनाए हाए

दिल चुराते हैं सभी दिन के उजाले में मगर
कोई रातों को मिरा ख़्वाब चुराए हाए

दास्ताँ ग़म की मैं जब जब भी लिखूँ काग़ज़ पर
अक्स उस माह-जबीं का उभर आए हाए

सामना हो तो चुरा ले वो निगाहें मुझ से
दूर जाए तो इशारे से बुलाए हाए

उस की उँगली में वो तासीर कि लज़्ज़त बख़्शे
जब भी वो चाय में उँगली को घुमाए हाए

उस को मैं देख के आया हूँ तो क्या देखता हूँ
उस के उश्शाक़ मुझे देखने आए हाए

तोड़ कर दिल वो मिरा जब से गया है 'इशराक़'
दिल से हर वक़्त निकलती है सदा-ए-हाए