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लफ़्ज़ों का ये ख़ज़ाना तिरे नाम कब हुआ | शाही शायरी
lafzon ka ye KHazana tere nam kab hua

ग़ज़ल

लफ़्ज़ों का ये ख़ज़ाना तिरे नाम कब हुआ

सदार आसिफ़

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लफ़्ज़ों का ये ख़ज़ाना तिरे नाम कब हुआ
ये शेर कब कहे तुझे इल्हाम कब हुआ

ये बात ठीक है कि मुझे दाम कम मिले
चुपके से बिक गया हूँ मैं नीलाम कब हुआ

कैसी शराब हूँ कि है तिश्ना मिरे ही लब
अपने लिए मैं दुर्द-ए-तह-ए-जाम कब हुआ

ये है मिरा नसीब कि शोहरत नहीं मिली
लेकिन कोई बताए कि बद-नाम कब हुआ

आता रहा हूँ याद मैं उस को तमाम उम्र
इस ज़ाविए से इश्क़ में नाकाम कब हुआ

वो हादसे कि ज़ेहन ही मफ़्लूज हो गए
ये भी नहीं है याद कि कोहराम कब हुआ

अब हो रहा है ज़िक्र-ए-मुसावात हर तरफ़
लोगों को इल्म है ये चलन आम कब हुआ