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लफ़्ज़ की काएनात में गुम हूँ | शाही शायरी
lafz ki kaenat mein gum hun

ग़ज़ल

लफ़्ज़ की काएनात में गुम हूँ

ख़लील मामून

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लफ़्ज़ की काएनात में गुम हूँ
फ़िक्र में गुम हूँ बात में गुम हूँ

तुम हो खोए हुए ज़माने में
मैं ख़ुद अपनी ही ज़ात में गुम हूँ

क्या अजब था जो मौत आ जाती
ग़म तो ये है हयात में गुम हूँ

फ़तह के जश्न में हैं सब सरशार
मैं तो अपनी ही मात में गुम हूँ

तुम ने जिन मुश्किलों में छोड़ा था
मैं उन्हीं मुश्किलात में गुम हूँ

ज़हर खाना मुझे नहीं आता
क़ंद में और नबात में गुम हूँ

कोई आए न देखने मुझ को
मैं अजब काएनात में गुम हूँ

मैं हूँ 'मामून' इक अजब इंसान
काएनात और ज़ात में गुम हूँ