लड़खड़ाता हूँ कभी ख़ुद ही सँभल जाता हूँ
मैं भी रस्तों के ही बरताव में ढल जाता हूँ
मिन्नतें मुझ से किया करते हैं दरिया आ कर
और मैं प्यास छुपा कर के निकल जाता हूँ
दिन विरासत में मुझे रौशनी दे जाता है
वो दिया हूँ कि सर-ए-शाम ही जल जाता हूँ
चाक पे आ के नहीं चलती है मर्ज़ी मेरी
ये बहुत है जो किसी शक्ल में ढल जाता हूँ
बे-सदा सी किसी आवाज़ के पीछे पीछे
चलते चलते मैं बहुत दूर निकल जाता हूँ
आईना रोज़ भरम रखता है क़ाएम मेरा
वर्ना ये सच है मैं हर रोज़ बदल जाता हूँ
आज महफ़िल से तिरी उट्ठा हूँ शायर हो कर
तेरी आँखों से लिए एक ग़ज़ल जाता हूँ
ग़ज़ल
लड़खड़ाता हूँ कभी ख़ुद ही सँभल जाता हूँ
सरफ़राज़ नवाज़