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लदी है फूलों से फिर भी उदास लगती है | शाही शायरी
ladi hai phulon se phir bhi udas lagti hai

ग़ज़ल

लदी है फूलों से फिर भी उदास लगती है

शकील शम्सी

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लदी है फूलों से फिर भी उदास लगती है
ये शाख़ मुझ को मिरी ग़म-शनास लगती है

किसी किताब के अंदर दबी हुई तितली
उसी किताब का इक इक़्तिबास लगती है

वो मौत ही है जो देती है सौ तरह के लिबास
ये ज़िंदगी है कि जो बे-लिबास लगती है

थी क़हक़हों की तमन्ना तो आ गए आँसू
ख़ुशी की आरज़ू ग़म की असास लगती है

उठा के देख सराबों के आइने को ज़रा
नदी के पास भला किस को प्यास लगती है