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लबरेज़-ए-हक़ीक़त गो अफ़साना-ए-मूसा है | शाही शायरी
labrez-e-haqiqat go afsana-e-musa hai

ग़ज़ल

लबरेज़-ए-हक़ीक़त गो अफ़साना-ए-मूसा है

वहशत रज़ा अली कलकत्वी

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लबरेज़-ए-हक़ीक़त गो अफ़साना-ए-मूसा है
ऐ हुस्न-ए-हिजाब-आरा किस ने तुझे देखा है

महफ़िल सी सजाई है दीदार की हसरत ने
हर-चंद तिरा जल्वा महबूब-ए-तमाशा है

मिटता है कभी दिल से नक़्श उस की मोहब्बत का
नाकाम तमन्ना भी मजबूर तमन्ना है

जज़्बात की दुनिया में बरपा है क़यामत सी
इस हाल में रू-पोशी क्या आप को ज़ेबा है

साक़ी तिरी महफ़िल को रंगीन किया जिस ने
वो ख़ून है तक़वे का या जल्वा-ए-मीना है

इक शेवा तग़ाफ़ुल है इक इश्वा तजाहुल है
ग़ुस्सा है बजा तेरा शिकवा मिरा बेजा है

ये बे-दिली अच्छी है दीवाना न बन 'वहशत'
अंजाम तमन्ना का हसरत के सिवा क्या है