लबों पे नर्म तबस्सुम रचा के धुल जाएँ
ख़ुदा करे मिरे आँसू किसी के काम आएँ
जो इब्तिदा-ए-सफ़र में दिए बुझा बैठे
वो बद-नसीब किसी का सुराग़ क्या पाएँ
तलाश-ए-हुस्न कहाँ ले चली ख़ुदा जाने
उमंग थी कि फ़क़त ज़िंदगी को अपनाएँ
बुला रहे हैं उफ़ुक़ पर जो ज़र्द-रू टीले
कहो तो हम भी फ़सानों के राज़ हो जाएँ
न कर ख़ुदा के लिए बार बार ज़िक्र-ए-बहिश्त
हम आसमाँ का मुकर्रर फ़रेब क्यूँ खाएँ
तमाम मय-कदा सुनसान मय-गुसार उदास
लबों को खोल के कुछ सोचती हैं मीनाएँ
ग़ज़ल
लबों पे नर्म तबस्सुम रचा के धुल जाएँ
अहमद नदीम क़ासमी