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लबों पे नर्म तबस्सुम रचा के धुल जाएँ | शाही शायरी
labon pe narm tabassum racha ke dhul jaen

ग़ज़ल

लबों पे नर्म तबस्सुम रचा के धुल जाएँ

अहमद नदीम क़ासमी

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लबों पे नर्म तबस्सुम रचा के धुल जाएँ
ख़ुदा करे मिरे आँसू किसी के काम आएँ

जो इब्तिदा-ए-सफ़र में दिए बुझा बैठे
वो बद-नसीब किसी का सुराग़ क्या पाएँ

तलाश-ए-हुस्न कहाँ ले चली ख़ुदा जाने
उमंग थी कि फ़क़त ज़िंदगी को अपनाएँ

बुला रहे हैं उफ़ुक़ पर जो ज़र्द-रू टीले
कहो तो हम भी फ़सानों के राज़ हो जाएँ

न कर ख़ुदा के लिए बार बार ज़िक्र-ए-बहिश्त
हम आसमाँ का मुकर्रर फ़रेब क्यूँ खाएँ

तमाम मय-कदा सुनसान मय-गुसार उदास
लबों को खोल के कुछ सोचती हैं मीनाएँ