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लबों पे अब कोई आह-ओ-फ़ुग़ाँ नहीं होती | शाही शायरी
labon pe ab koi aah-o-fughan nahin hoti

ग़ज़ल

लबों पे अब कोई आह-ओ-फ़ुग़ाँ नहीं होती

शोला हस्पानवी

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लबों पे अब कोई आह-ओ-फ़ुग़ाँ नहीं होती
ज़बाँ से दिल की कहानी बयाँ नहीं होती

ख़लिश तो आज भी होती है मेरे सीने में
नशिस्त-ए-दर्द जहाँ थी वहाँ नहीं होती

ख़ुदा ने चाहा तो मिल जाएँगे कहीं न कहीं
बिछड़ के ख़त्म यहाँ दास्ताँ नहीं होती

जो ख़ुद से मिलते हैं हम बे-ख़ुदी के आलम में
तुम्हारी याद तलक दरमियाँ नहीं होती

वो क़त्ल हो के भी क़ातिल पे मुस्कुराती है
अजल से ज़ीस्त कभी बद-गुमाँ नहीं होती

तुम्हारे चाहने वाले वहाँ नहीं मिलते
दिलों में दर्द की शिद्दत जहाँ नहीं होती