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लब से दिल का दिल से लब का राब्ता कोई नहीं | शाही शायरी
lab se dil ka dil se lab ka rabta koi nahin

ग़ज़ल

लब से दिल का दिल से लब का राब्ता कोई नहीं

ख़ुर्शीद रिज़वी

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लब से दिल का दिल से लब का राब्ता कोई नहीं
हसरतें ही हसरतें हैं मुद्दआ' कोई नहीं

हर्फ़-ए-ग़म-ए-ना-पैद है आँखों में नम नापैद है
दर्द का सैल-ए-रवाँ है रास्ता कोई नहीं

अपने मन का अक्स है अपनी सदा की बाज़गश्त
दोस्त दुश्मन आश्ना ना-आश्ना कोई नहीं

सब के सब अपने गरेबानों में हैं डूबे हुए
गुल से गुल तक रिश्ता-ए-मौज-ए-सबा कोई नहीं

हाल-ए-ज़ार ऐसा कि देखे से तरस आने लगे
संग-दिल इतने कि होंटों पर दुआ कोई नहीं

क्या कोई राकिब नहीं हम में समंद-ए-वक़्त का
नक़्श-ए-पा सब हैं तो क्या ज़ंजीर-ए-पा कोई नहीं

मैं तो आईना हूँ सब की शक्ल का आईना-दार
बज़्म में लेकिन मुझे पहचानता कोई नहीं

दिल के डूबे से मिटी दस्त-ए-शनावर की सकत
मौज की तुग़्यानियों से डूबता कोई नहीं

आँख मीचोगे तो कानों से गुज़र आएगा हुस्न
सैल को दीवार-ओ-दर से वास्ता कोई नहीं

अर्श की चाहत हो या पाताल का शौक़-ए-सफ़र
इब्तिदा की देर है फिर इंतिहा कोई नहीं

कारवाँ 'ख़ुर्शीद' जाने किस गुफा में खो गया
रौशनी कैसी कि सहरा में सदा कोई नहीं