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लब पे हर्फ़-ए-मो'तबर रखता है वो | शाही शायरी
lab pe harf-e-motabar rakhta hai wo

ग़ज़ल

लब पे हर्फ़-ए-मो'तबर रखता है वो

मुनीर सैफ़ी

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लब पे हर्फ़-ए-मो'तबर रखता है वो
बात करने का हुनर रखता है वो

एक आली-शान घर रखता है वो
फिर भी ख़ुद को दर-ब-दर रखता है वो

एक अपनी ही नहीं हैं उलझनें
कितने ग़म-हा-ए-दिगर रखता है वो

उड़ रहा है जो खुले आकाश में
आने वाले कल का डर रखता है वो

सर से पा तक चीख़ती सन्नाटगी
अपने अंदर इक खंडर रखता है वो

ठोकरों में उस की है सुल्तानियत
पेट पर पत्थर मगर रखता है वो

दिल जला के जाने की की याद में
शाम की दहलीज़ पर रखता है वो

दिल के पाँव डाल दी ज़ंजीर-ए-अक़्ल
नफ़्स को यूँ मार कर रखता है वो

रात-भर चेहरा ख़ुदा की याद में
आँसुओं से तर-ब-तर रखता है वो

खोया रहता है किताबों में मगर
शहर-ओ-सहरा की ख़बर रखता है वो

आदमी से हो गई हैं नफ़रतें
घर में जंगली जानवर रखता है वो

झील लड़की मोर तितली गुल हवा
ख़्वाब की दीवार पर रखता है वो

एक नक़्श-ए-पा ज़मीं पर है 'मुनीर'
दूसरा अफ़्लाक पर रखता है वो