लब पे आई हुई ये जान फिरे
यार गर इस तरफ़ को आन फिरे
चैन क्या हो हमें जब आठ पहर
अपने आँखों में वो जवान फिरे
ख़ून-ए-आशिक़ छुटा कि है लाज़िम
तेरे तलवार पर ये सान फिरे
साक़िया आज जाम-ए-सहबा पर
क्यूँ न लहराती अपनी जान फिरे
हिचकियाँ ली है इस तरह बत-ए-मय
जिस तरह गटकरी में तान फिरे
या तो वो अहद थे कि हम हरगिज़
न फिरेंगे अगर जहान फिरे
आए अब रोके हो मआ'ज़-अल्लाह
आप से शख़्स की ज़बान फिरे
रूठ कर उठ चले थे 'इंशा' से
बारे फिर हो के मेहरबान फिरे
ग़ज़ल
लब पे आई हुई ये जान फिरे
इंशा अल्लाह ख़ान