लब पर ख़मोशियों को सजाए नज़र चुराए
जो अहल-ए-दिल में बैठे हैं चुप-चाप सर झुकाए
कह दो कोई सबा से इधर आज-कल न आए
कलियाँ कहीं महक न उठें फूल खिल न जाए
अब दोस्ती वो फ़न कि जो सीखे वही निभाए
और है वफ़ा तमाशा जिसे आए वो दिखाए
कुछ कहना जुर्म है तो ख़ता-वार मैं भी हूँ
ये और बात मेरा कहा वो समझ न पाए
ग़ज़ल
लब पर ख़मोशियों को सजाए नज़र चुराए
ज़ेहरा निगाह