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लब-ए-मंतिक़ रहे कोई न चश्म-लन-तरानी हो | शाही शायरी
lab-e-mantiq rahe koi na chashm-e-lan-tarani ho

ग़ज़ल

लब-ए-मंतिक़ रहे कोई न चश्म-लन-तरानी हो

तफ़ज़ील अहमद

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लब-ए-मंतिक़ रहे कोई न चश्म-लन-तरानी हो
ज़मीं फिर से मुरत्तब हो फ़लक पर नज़र-ए-सानी हो

अभी तक हम ने जो माँगा तिरे शायाँ नहीं माँगा
सिखा दे हम को कुन कहना जो तेरी मेहरबानी हो

ख़स-ए-बे-माजरा हैं ख़ार बे-बाज़ार हैं तो क्या
नुमू-शहकार हम भी हैं हमारी भी किसानी हो

मिलेंगे धूप की मारी चटानों में भी ख़्वाब-ए-नम
कोई ख़ुश्की नहीं ऐसी जहाँ तह में न पानी हो

लहू को भी तनफ़्फ़ुस ही रवाँ रखता है ख़लियों में
बहे सहरा में भी कश्ती अगर ज़ोर-ए-दुख़ानी हो

बड़ा सुरख़ाब पर निकला बदन का ख़ूँ-चकाँ रहना
शफ़क़ सय्याह की लाज़िम थी रंगत अर्ग़वानी हो

तख़ातुब के लिए 'तफ़ज़ील' अबजद मेरे हाज़िर हैं
कोई नक़्क़ारा-ख़ाना हो कि बैत बे-ज़बानी हो