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लब-ए-रंगीं हैं तिरे रश्क-ए-अक़ीक़-ए-यमनी | शाही शायरी
lab-e-rangin hain tere rashk-e-aqiq-e-yamani

ग़ज़ल

लब-ए-रंगीं हैं तिरे रश्क-ए-अक़ीक़-ए-यमनी

मीर मोहम्मदी बेदार

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लब-ए-रंगीं हैं तिरे रश्क-ए-अक़ीक़-ए-यमनी
ज़ेब देती है तुझे नाम-ए-ख़ुदा कम-सुख़नी

हार कल पहने थे फूलों के निशाँ है अब तक
ख़त्म है गुल-बदनों में तिरी नाज़ुक-बदनी

शर्म से आब हुए नीशकर-ओ-क़ंद-ओ-नबात
देख कर ऐ शकरीं-लब तिरी शीरीं-दहनी

मेवा-ए-बाग़-ए-इरम उस को न भावे हरगिज़
तौबर-ए-बोसा किया जिस ने वो सेब-ए-ज़क़नी

झूटे वा'दे तिरे ऐ जान करूँ सब बावर
दिल शिकस्ता न करे गर तिरी पैमाँ-शिकनी

शमा'-रूयों से जिसे शाम-ओ-सहर सोहबत हो
है सज़ा-वार उसे दा'वा-ए-ख़ुश-अंजुमनी

इस क़दर महके है उस काकुल-ए-मुश्कीं की शमीम
जुस्तुजू में हुए 'बेदार' ग़ज़ाल-ए-ख़ुतनी