EN اردو
लब-ए-इज़हार पे जब हर्फ़-ए-गवाही आए | शाही शायरी
lab-e-izhaar pe jab harf-e-gawahi aae

ग़ज़ल

लब-ए-इज़हार पे जब हर्फ़-ए-गवाही आए

सिब्त अली सबा

;

लब-ए-इज़हार पे जब हर्फ़-ए-गवाही आए
आहनी हार लिए दर पे सिपाही आए

वो किरन भी तो मिरे नाम से मंसूब करो
जिस के लुटने से मिरे घर में सियाही आए

मेरे ही अहद में सूरज की तमाज़त जागे
बर्फ़ का शहर चटख़ने की सदा ही आए

इतनी पुर-हौल सियाही कभी देखी तो न थी
शब की दहलीज़ पे जलने को दिया ही आए

रह-रव-ए-मंज़िल-ए-मक़्तल हूँ मिरे साथ 'सबा'
जो भी आए वो कफ़न ओढ़ के राही आए