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लब-ए-दरिया मुरादों का मकाँ कैसा रहा होगा | शाही शायरी
lab-e-dariya muradon ka makan kaisa raha hoga

ग़ज़ल

लब-ए-दरिया मुरादों का मकाँ कैसा रहा होगा

खुर्शीद अकबर

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लब-ए-दरिया मुरादों का मकाँ कैसा रहा होगा
घनी पलकों तले आब-ए-रवाँ कैसा रहा होगा

दहकती आग में वो साएबाँ कैसा रहा होगा
हमारे सर के ऊपर आसमाँ कैसा रहा होगा

बहुत बेचैन है ख़ाक-ए-बयाबाँ सर पटकती है
दिवाना शहर भर में बे-अमाँ कैसा रहा होगा

सितारे बुझ गए होंगे ज़मीनें जल रही होंगी
फिर इस के ब'अद सैर-ए-ला-मकाँ कैसा रहा होगा

ज़मीं की बे-पनाही देखता हूँ याद करता हूँ
फ़लक पहलू में तुम सा मेहरबाँ कैसा रहा होगा